ग्राहकों को सुरक्षित जानकारी प्राप्त करने वस्तुओं का चयन करने तथा अपने बाप के सुनने जानने का अधिकार है: स्मिता देशपांडे!


रवि सेन 9630670484

 रायपुर!हमर मितान-अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के छत्तीसगढ़ प्रांत प्रभारी अधिवक्ता स्मिता देशपांडे जी का 2 दिवसीय प्रवास18 एवम 19 मार्च को बिलासपुर एवम रायपुर में नगर व प्रान्त कार्य कारिणी से संगठन की गतिविधि एवम कार्य योजना आगामी अभ्यास वर्ग आदि पर चर्चा हुई सभी कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों ने ने पूर्ण सक्रियता से आगे बढ़ने का संकल्प लिया इसी कड़ी में श्रीमती देशपांडे ने देश में ग्राहकों की समस्याओं पर विस्तृत जानकारी देते हुए वर्तमान में निगम एवं नगरपालिका गांव में बंद नाली से संबंधित जानकारी भी दी नाली होने के कारण मच्छर और गंदगी बदबू से कई प्रकार की बीमारी होती है इसलिए शासन ने नगरपलिका अधिनियम के अंतर्गत बंद नाली निर्माण की जानी।

भारतीय समाज वसुधैव कुटुंबकम की मूल अवधारणा पर टिका है।इसके मुताबिक-पूरा विश्व एक परिवार है। लेकिन ग्लोबलाइजेशन(वैश्वीकरण) के बाद अब ये अवधारणा पीछे छूटते नजर आ रही है।विश्व बेहद तेजी के साथ परिवार से बाजार में तब्दील होता जा रहा है। जब परिवार बाजार में तब्दील होगा तो लाजिमी है… न चाहते हुए भी इंसान, उपभोक्ता में तब्दील हो ही जाएगा। क्योंकि, जहां परिवार की धुरी मानवीय मूल्य होते हैं वहीं बाजार का आधार सिर्फ और सिर्फ मुनाफे की अर्थ व्यवस्था

पर टिका होता है। लिहाजा बाजार में बैठा हर व्यापारी बेहद निष्ठुरता से, किसी भी कीमत पर हर सौदै में सिर्फ अपना ही लाभ चाहता है।

तो ऐसे में जबकि गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा, अधिक से अधिक उत्पादन और

लालच के बीच मुनाफाखोरी ही व्यापार का एकमात्र लक्ष्य रह गया हो, ग्राहक आंदोलन बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। दुर्भाग्य से मौजूदा दौर में ग्राहक न तो शिक्षित है (यहां शिक्षा का तात्पर्य औपचारिक शिक्षा से नहीं है), न संगठित और न ही जागरूक। बल्कि अगर कहा जाए कि ग्राहक (जो मन से वस्तु को ग्रहण करे) सिर्फ उपभोक्ता (जोसिर्फ वस्तु का उपभोग याइस्तेमाल करे) में तब्दील हो गया है तो भी गलत नहीं होगा। इसी वजह से वह शोषण का शिकार तो हो ही रहा है, उसे अपने पैसे का सही मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। इस कमी को केवल बेहद सक्रिय और प्रभावी ग्राहक आंदोलन के जरिए ही पूरा किया जा सकता है। असल में मां के गर्भ में आते ही बच्चा उपभोक्ता की शक्ल अख्तियार कर लेता है। जाने-अनजाने वो दवाइयों, फलों या मां की दीगर जरूरतों के साथ ही वस्तुओं का उपयोग शुरू कर देता है। बाजार पर उसकी ये निर्भरता उसकी अंतिम सांस तक नहीं बल्कि उसके पंचतत्व में विलीन होने के बाद भी जारी रहती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म,जाति,संप्रदाय,रंग, ऊंच-नीच या गरीबी-अमीरी के पैमाने से बाहर हर इंसान भी देते थे झांसा वैश्विक ग्राहक आंदोलन-दशा और दिशाका उपभोक्ता होना अवश्यंभावी है। इसके बावजूद, ये सबसे महत्वपूर्ण विषय दुर्भाग्य से सबसे ज्यादा उपेक्षित भी है। कम से कम हमारे देश में तो ग्राहक जागरूकता को लेकर जो भी सरकारी टोटके आजमाए जा रहे हैं वो नाकाफी हैं। सिर्फ ‘जागो ग्राहक जागो’ कह देने से ग्राहक जाग जाएगा ये हमारी खुशफहमी ही है। कभी कभार अखबारों या टीवी पर विज्ञापन दे देने से, कानूनों में संशोधन कर देने से या नया कानून बना देने से या सिर्फ सरकारी रिकाडर्डों को अपडेट करने के लिहाज से संगोष्ठी कर देने से भी ग्राहक का कोई स्थाई भला नहीं होने वाला है। इसके लिए जरूरत है सतत प्रयासों और अथक मेहनत की। दुर्भाग्य से सरकारों को जनहित के इस अति महत्वपूर्ण विषय पर जितना ध्यान देना चाहिए वो नहीं दे रही हैं। इसकी एक सबसे बड़ी वजह तो ये है कि अभी हमारे यहां ग्राहकों का भी कोई सर्वव्यापी या सर्वस्वीकृत संगठन दिखाई नहीं

पड़ता है जो दबाव समूह के तौर पर काम कर सके। फिलहाल इस दिशा में सरकार या संगठनों की ओर से जो भी प्रयास किये जा रहे हैं वो बेहद मामूली और बिखरे हुए हैं। शहरों में तो फिर भी हालात ठीक हैं, ग्रामीण इलाकों में तो ग्राहक एमआरपी का मतलब तक नहीं जान पाता है। चतुर सेठ-साहूकार अगर उसे एमआरपी का मतलब मैक्सिमम रिटेल प्राइस (अधिकतम खुदरा मूल्य) की बजाए मिनिमम रिटेल प्राइस यानी न्यूनतम खुदरा मूल्य बता दे तो भी ग्रामीणों के पास उसे मानने के सिवाए कोई दूसरा विकल्प

नहीं होता है।इन हालात में सुधार के लिए सबसे पहले तो सरकार को उपभोक्ता शिक्षा को औपचारिक शिक्षा में शामिल कर स्कूल, कॉलेज में अनिवार्य विषय के तौर पर पढ़ाये जाने की व्यवस्था करनी चाहिए। जब बच्चा स्कूल से ही बतौर ग्राहक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहेगा तो बड़ा होकर उसका एक जागरूक ग्राहक बनने की संभावनाएं बहुत ज्यादा रहेंगी। इसके सिवाए सरकार को ग्राहक जागरूकता के लिए परंपरागत सोच और तरीकों को छोड़कर नए साधनों को अपनाना चाहिए। इसके लिए उपभोक्ता संगठनों को विश्वास में लेना भी अनिवार्य है। लेकिन जागरूकता का ये सारा दारोमदार हिस्से की जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ेगी। हम सिर्फ और सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं। पूरे समाज को अपने अभी भी देखने में आता है कि जब भी किसी बिल्डर, स्कूल या अस्पताल या किसी भी सेवा प्रदाता कंपनी के खिलाफ ग्राहक मिलकर मोर्चा खोल देते हैं उस संस्थान को पीछे हटना पडता है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसी घटनाएं कम ही

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